चेतन-अवचेतन मन की सर्वाधिक जागृत संज्ञा हैं राम

गांवों में परंपरा है कि किसी अपरिचित के सामने पड़ते ही या तो आपके मुंह से राम राम निकलता है या फिर वह राहगीर आपको राम राम कहते हुए निकलता है। आपसी अभिवादन की यह रीति कितनी सकारात्मक और जोड़ने वाली है, यह समझ में आता है। चौंकते या अवाक रह जाने के समय हमारे मुंह से बेतहाशा निकता है हे राम! या हाय राम! इसी तरह जब कोई निषिद्ध वस्तु हमारे सामने आती है, तो बरबस ही मुंह से निकलता है राम राम! अर्थ यह हुआ कि राम हमारे जीवन में, चेतना में तो सांसों की तरह रचे-बसे ही हैं, हमारे अवचेतन में भी समाए हुए हैं।
– रवि पाराशर
अयोध्या में भव्य राम मंदिर का निर्माण हो रहा है। 130 करोड़ भारतीय नागरिकों के लिए यह सुखद अनुभव सदियों पुराने सपने के पूरे होने जैसा है। मंदिर निर्माण के लिए धन कोई भी आस्थावान धनी व्यक्ति, संस्था या समूह देने को सहर्ष तैयार हो जाएगा, लेकिन इसके लिए भारतीय सनातन चेतना की मूर्त-अमूर्त सर्वाधिक जागृत संज्ञा राम पर भरोसा रखने वाले सभी भारतीय नागरिकों अवसर दिया जा रहा है, इससे अच्छी बात कोई हो नहीं सकती।
सामाजिक सनातन ताने-बाने में राम इस तरह रचे-बसे हैं कि उन्हें जब हम बाकायदा सोच रहे होते हैं, तब तो उनकी अमृतमयी छवि हमारे अंतर्मन में उभरती ही है, लेकिन दिन भर में हम बहुत बार उन्हें बिना उनकी छवि निहारे भी स्मरण करते रहते हैं। किसी मूर्त रूप के इस तरह अदृश्य होकर हमारे सामाजिक जीवन में घुल-मिल जाने का कोई और दूसरा अप्रतिम उदाहरण नही मिलता। राम हमारे जन्म से लेकर दैनंदिन क्रियाकलापों तक और फिर मृत्यु के समय किए जाने वाले संस्कारों तक में अनिवार्य रूप से समाए हुए हैं।
भारत की आत्मा ग्रामीण जीवन में बसती है। हम सबके पुरखे गांवों में ही रहते थे। गांवों में आज भी परंपरा है कि भले ही आप किसी राहगीर से परिचित नहीं हों, लेकिन सामने पड़ते ही या तो आपके मुंह से राम राम निकलता है या फिर वह राहगीर आपको राम राम कहते हुए निकलता है। जरा गहराई से सोचें, तो आपसी अभिवादन की यह रीति कितनी सकारात्मक और परस्पर जोड़ने वाली है, यह समझ में आता है। यह तो नहीं पता कि अभिवादन के लिए राम राम कहने की परंपरा भारतीय काव्य जगत के भक्तिकाल में पड़ी या पहले से ही चली आ रही है, लेकिन इतना अवश्य समझ में आता है कि 16वीं शताब्दी में बादशाह अकबर के दीन-ए-इलाही को प्रचलित करने के प्रयासों के कारण सनातनी परंपराओं के पोषक समाज में राम राम रटने की प्रथा प्रतिक्रियावश और अधिक मजबूत हुई होगी। आज भी गांवों में राम राम बोल कर अभिवादन किया जाता है। केवल हिंदू समाज ही राम राम बोलता हो, ऐसा नहीं है। गांव में रहने वाले मुसलमान या दूसरे धर्मों को मानने वाले भी आपको राम राम बोलते हुए या आपके राम राम बोलने पर राम राम कह कर ही जवाब देते मिल जाएंगे।
इस तरह के और भी बहुत से उदाहरण मिलते हैं, जिन पर हम आमतौर पर ध्यान नहीं देते। जैसे कि चौंकते या अवाक रह जाने के समय हमारे मुंह से बेतहाशा निकता है हे राम! या फिर हाय राम! इसी तरह जब कोई निषिद्ध वस्तु हमारे सामने आती है, तो हमारे मुंह से बरबस ही निकलता है राम राम! कहने का अर्थ यह हुआ कि राम हमारे जीवन में, चेतना में तो सांसों की तरह रचे-बसे ही हैं, हमारे अवचेतन में भी समाए हुए हैं। सांस लेना अनैच्छिक क्रिया है। हम निरंतर सांस लेते रहते हैं, लेकिन हमें हर क्षण इसका कोई भौतिक अनुभव नहीं हो रहा होता। इसी तरह राम हमारी समस्त चेतना में अनिवार्य रूप से सम्मिलित हैं, भले ही इसका अनुभव हम हर क्षण कर पाते हों या नहीं। जागृत चेतना ही नहीं, राम तो हमारी अवचेतन अवस्थाओं में भी शामिल हैं।
राम का स्मरण आते ही एक विचार मन में अक्सर आता है कि सत्य क्या होता है? राम नाम सत्य है, तो क्यों? अगर राम नाम सत्य है, तो यह एक ही अवस्था के लिए सत्य है या फिर हर समय सत्य है? अगर राम नाम सत्य है, तो घर, मंदिर या कहीं पर नियमित पूजा-पाठ करते समय हम क्यों नहीं बोलते कि राम नाम सत्य है? अगर राम नाम सत्य है, तो क्या कृष्ण या फिर दूसरे अवतारों का नाम भी सत्य है? अगर हां, तो फिर सनातन धर्मानुयायी शव-यात्रा के दौरान ऐसा क्यों नहीं कहते कि कृष्ण नाम सत्य है? प्रश्न यह भी है कि क्या कोई नाम किसी विशेष शब्द समुच्चय और क्रिया विशेष से किसी भी तरह जुड़ जाए, तो वह अन्यथा वर्जित हो सकता है?
राम हमारे भगवान हैं, यह सार्वभौमिक सत्य है, तो शव-यात्रा में शामिल कुटुंबियों, मित्रों और आसपास से गुजर रहे लोगों को यह बताने की ज़रूरत क्यों पड़ती है कि राम नाम सत्य है? क्यों शव यात्रा के दौरान लगातार सिर्फ़ राम-राम, राम-राम बोलने की परंपरा नहीं पड़ी? अगर माता कौशल्या और पिता दशरथ ने नाम अपने ज्येष्ठ पुत्र का नाम राम नहीं रखकर कुछ और रखा होता, तब भी उस युग के महानायक होने के नाते उन्हें भगवान का दर्जा मिलना तय था। ऐसी अवस्था में हम बोल रहे होते- ….. नाम सत्य है!! हालांकि यह सत्य है कि हिंदुओं की शव-यात्राओं के दौरान ‘राम नाम सत्य है’ का उच्चार किया जाता है, लेकिन ज़रा सोचें कि राम का नाम सत्य होते हुए भी क्रियाकर्म की यह लीक क्यों पड़ी होगी? समझ मेंय यह आता है कि ‘राम नाम सत्य है’ के उच्चार में सत्य संदेश यही है कि मृत्य ही अटल सत्य है, इसका ध्यान रखा जाए और जीवन में ऐसा कोई काम न किया जाए, जिससे किसी को चोट पहुंचे। लिहाज़ा सत्य बोलने में ही जीवन की गति है और अगर व्यक्ति राम के नाम का स्मरण करता रहेगा, तो फिर वह असत्य की ओर जाने से बच सकेगा। भारतीय सनातन परंपराओं में राम को किस तरह आत्मसात किया गया है, इसे समझने के लिए इससे उचित उदाहरण नहीं मिलेगा।
अब जबकि दुनिया भर में बसे भारतीयों के आराध्य राम का भव्य मंदिर अयोध्या में बनने जा रहा है, तब हम सभी आस्थावान भारतीयों का कर्तव्य है कि उसके निर्माण में सहयोग करें। जितनी क्षमता हो, उतना सहयोग करें। कुछ पौराणिक कथाओं में कहा जाता है कि जब भगवान राम लंका में प्रवेश के लिए समुद्र पर पुल बनवा रहे थे, तब एक गिलहरी भी उसमें सहयोग कर रही थी। इसी तरह हम भी अपनी अपनी क्षमता के हिसाब से राम मंदिर के लिए अपना योगदान दें। सामूहिक चेतना से जो काम होते हैं, उनमें अलग ही आनंद की अनुभूति होती है। आज भारतीय चेतना पूरी दुनिया के संचालन में अहम भूमिका निभा पा रही है, तो ऐसा हमारे पूर्वज भगवान राम की ही विशेष अनुकंपा के कारण हो पा रहा है। जय सियाराम!