भारत के लोकमंगल का उत्सवी विहानः श्री सीताराम श्री सीताराम श्री सीताराम।

भारत के लोकमंगल का उत्सवी विहानः श्री सीताराम श्री सीताराम श्री सीताराम।

– राकेश कुमार उपाध्याय (लेखक भारत अध्ययन केद्र, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में शताब्दी पीठ आचार्य हैं)

सनातन धर्म, संस्कृति कालजयी है और श्री रामजन्मभूमि, अयोध्या के पुनरुद्धार की महान संघर्ष गाथा इसके कालजयी होने का सबसे नूतन प्रमाण है। भारत के लोकजीवन में, भारत के राजनीतिक आदर्श में, भारत के इतिहास और पुराण में, भारत की आध्यात्मिक विचारधारा में और इसके जन-मन में राम जिस गहराई से रचे-बसे हैं, वह स्वयं ही इस बात का प्रमाण है कि राम के बिना भारत के अस्तित्व की भी कल्पना नहीं की जा सकती। राम राष्ट्र हैं, राष्ट्र के प्राण भी हैं। राम राज्य हैं और राज्य के आदर्श भी हैं। राम भारत के लोक हैं, उसकी मंगलकामना भी हैं, राम घट-घट व्यापी ईश्वर हैं तो राम अयोध्या में सशरीर प्रकट होने वाले रामलला भी हैं। राम ईश्वर भी हैं और माता की गोद में खेलते मुस्कराते कौशल्यानंदन भी हैं। राम अविनाशी हैं तो अयोध्यावासी भी हैं, वह राजा हैं तो परात्पर ब्रह्म के ईष्ट भी हैं। वह शिव-शक्ति के आध्यात्मिक आदर्श के मूर्तिमत प्राकट्य हैं। विष्णु-लक्ष्मी के संकल्प स्वरूप होकर लोक के निर्भय हो जाने, उसके पालन-पोषण के हेतु होकर वह सीतापति हैं, सियाराम हैं, सीताराम हैं, श्रीराम हैं।
रामरक्षा स्तोत्र में शिव पार्वती जी के संवाद में मंत्र आता है-राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे, सहस्रनाम तत्तुल्यं रामनाम वरानने। शिव स्वयं एकमात्र रामनाम को ही मुक्ति का महामंत्र घोषित करते हैं। महर्षि वाल्मीकि से लेकर गोस्वामी तुलसीदास तक रामनाम ही महामंत्र के रूप में कोटि-कोटि व्याकुल जनों के जीवन में आस-विश्वास बनकर ज्योतित होता दिखाई देता है।

ब्रह्मांड में आकाश और पृथ्वी के मंगलदायी महामिलन से व्युत्पन्न और उसके कारण चैतन्य ब्रह्म की सूक्ष्म सारस्वतधारा के संपर्क से निर्मित षोडशमातृका युक्त मानव मष्तिष्क के भीतर ज्ञान की हिलोर लेती लहरें नित्य उठती हैं। षोड्श मातृका में निरंतर उठ रही इस निराकार शब्द संसार का एक अद्भुत वैज्ञानिक स्वरूप है, इसे भर्तृहरि कृत वाक्यपदीय नामक ग्रंथ और उसके सूत्रवत कठिन श्लोकों के गहन अध्ययन में समझा जा सकता है। अमेरिका और यूरोप के अनेक बड़े विश्वविद्यालयों के वैज्ञानिक तक वाक्यपदीयम् का अध्ययन कर रहे हैं। वैज्ञानिक मन में जो मौलिक प्रश्न उठते हैं कि पहले अक्षर या शब्द की व्युत्पत्ति मन में होती है या वाक्य की? इसका उत्तर भर्तहरि की हजारों वर्ष पुरानी पोथी देती है। किन्तु इसमें रहस्य वाली बात यह है, जिसे ऋषियों ने अनुभूति से जाना है कि मष्तिष्क के ब्रह्मालय में निराकार विद्युतीय हलचल और उस हलचल से अक्षर और उससे बनने वाले शब्द समेत उसके स्व का संज्ञान करा देने वाला महान शब्द अगर कोई है तो वह केवल राम नाम ही है। निराकार अक्षर की हलचल शब्द में कैसे बदल जाती है, क्यों बदल जाती है, शब्द वाक्य का रूप क्यों लेता है, कैसे लेता है, चैतन्य से मिलने के बाद मिट्टी और पंचतत्वों से रचित शरीर के मष्तिष्क में विचार कहां से और क्यों जन्म लेते हैं, इन विचारों की अंतिम मंजिल कहां है, कहां जाकर ये अंतिम विश्रांति प्राप्त करते हैं, इन्हें सदा के लिए जागृत और निरंतर जागृत रखने वाला अक्षर-युग्म और शब्द का साकार नाम कौन सा है जो निराकार अक्षर और शब्द को साकार में परिवर्तित करने वाले मनोमस्तिष्क और कंठ के साथ आकंठ जुड़ा है, निरंतर सांस में ओत-प्रोत शरीर में शिव और शक्ति के एकत्व का आभाष सदा जागृत रखने वाली उस परम परमात्मा ध्वनि का साक्षात्कार सनातन काल से ऋषि-मुनि करते आ रहे हैं, उस निरंतर गूंजती महामंगलकारी ध्वनि को राम रूप में जाना और माना गया है, जो ओंकार रूपी शब्द ब्रह्म को निराकार रूप से साक्षात साकार लोक और विश्व रूप में परिवर्तित कर देती है, उसके पालन-पोषण का हेतु बनती है, उसके जीवन को सार्थकता देते हुए शरीर के जीर्ण हो जाने पर उसे आवागमन के चक्र से मुक्ति भी प्रदान करती है।

आधुनिक संसार अरबों डॉलर खर्च करे, कितनी ही प्रयोगशालाओं में कितने ही वर्ष प्रयोग करे, तब भी शायद उसे राम नाम की महिमा का पता न चल सके और जिस दिन पता चल जाएगा तो उसके सम्मुख चमत्कृत होने के सिवाय कोई रास्ता नहीं बचेगा कि इस अत्यंत छोटे से सरल अक्षर-युग्म राम को वो पहले क्यों नहीं जान सके। यही है वह गॉड पार्टिकल, जिसके प्रकाश में सब कुछ जाना जा सकता है। भारत में जाना जाता रहा है।

कलयुग केवल नाम अधारा, सुमिर सुमिर नर उतरहिं पारा।

इक ओंकार सतनाम। यह चिरन्तन सत्य है किन्तु हमारे ऋषियों ने ही ध्यान के प्रयोग की गहन गुफा में जाकर देखा तो पाया कि निर्गुण निराकार ओंकार जब साकार होने के यात्रा मार्ग पर बढ़ता है तो उसे ध्वनि और धुन रूपी राम मंत्र के जरिए साकार बनना ही पड़ता है। बनना ही पड़ेगा। ओम के रोम-रोम में राम मंत्र गूंजने लगता है, ओमकार जब राम में बदलता है तभी सृजन क्रिया मूर्त रूप लेती है, सृष्टि के सृजन और पोषण के लिए और कोई मार्ग ही नहीं है सिवाय राम मार्ग के। आज जो लोग किन्हीं राजनीतिक कारणों से, विद्वेषवश होकर राम नाम को स्वयं से दूर कर रहे हैं, वो बहुत बड़े अज्ञानता के शिकार हैं, मूढ़ता की पराकाष्ठा कर रहे हैं, क्योंकि जो ध्वनि निरंतर मन-कंठ-श्वास में रम रही है, उससे पीछा छुड़ा पाना उनके वश में ही ही कहां, इसका विकल्प ही कहीं नहीं है, क्योंकि उसे नकारकर स्वयं से ही स्वयं को सदा के लिए जन्म-जन्म के मृत्युपाश में बांधना ही तो है, इसके विपरीत उसे पहचानकर, मानने और निरंतर सुमिरनकर अपने कर्म में जुटे रहने से मुक्ति का रास्ता अवश्य मिल सकता है।

वस्तुतः ऋषियों की अर्चना से प्राप्त हुआ ‘ऋषि-अर्च’ रूपी राम नाम का शोध-रस अथवा (RESE-ARCH, ऋषि-अर्च) ‘रिसर्च-रस’ भारत के महान ज्ञानी अनंत उपकारी उन ऋषियों, मुनियों और संतों की देन है, जिन्होंने समस्त वर्ण-जाति-संप्रदाय के परे उस महानतम सत्य को जान लिया था, जिसके सुमिरन, स्मरण, जप और उच्चारण मात्र से जन्मों के बंद मष्तिष्क कपाट खुल जाने की संभावना पैदा हो जाती है, बाकी किसी भी अन्य शब्द में इतनी सरलता नहीं है, लालन-पालन-धारण करने और अंत में मुक्ति देने की ऐसी सहज शक्ति भी नहीं है, इसीलिए राम नाम को कलियुग के लिए हमारे ऋषियों ने-संतों ने मुक्ति का महामंत्र घोषित किया था। मनुष्य या जीव को जो परम गति कठिनतम योग और ध्यान के अभ्यास से प्राप्त हो सकती है, वही गति अति सरल राम नाम के सुमिरन से भी प्राप्त हो सकती है।

ऋषियों-मुनि-संतों ने मनुष्य जाति के लिए कलियुग को सबसे कठिन काल माना है जिसमें धर्म का सर्वत्र लोप होने लगता है, नियम-साधनों का पालन अनेक कारणों से कठिन हो जाता है, ऐसे कठिन काल के लिए सबसे सरल पूजा-विधि नाम सुमिरन, नाम-जप और नाम के गुण-गान-कीर्तन-भजन के रूप में खोज निकाली गई जिसका आधार राम नाम को बनाया गया। इसीलिए भारतीय सनातन आध्यात्मिक परंपरा में ब्रह्म का अनुसंधान और लक्ष्य सब राम नाम में ही समाहित माना गया है। राम शब्द के उच्चारण मात्र से ही कंठ से लेकर मष्तिष्क के सर्वोच्च बिन्दु सहस्रार तक जो सूक्ष्म विद्युत तरंग दौड़ती है, वह राम नाम के महात्म्य को स्वयं ही प्रकट कर देती है। मनुष्य अपनी समस्त वेदना में, सभी कष्टों में जब बिल्कुल ही निःसहाय रह जाता है तब भी यह रामनाम उसके भीतर शक्ति का संचार करता है। रामनाम का जाप उसे फिर से दुःख की धूल झाड़कर आनन्दमार्ग पर चलने के लिए उत्प्रेरित कर देता है। और अंत समय में अगर राम नाम मुख में आ जाय तो सांसों को भी अनिवर्चनीय आराम मिल जाता है, जिस राम से सांसें शुरु हुईं, उसी राम ध्वनि के वायुरूप में सांसों का लय हो जाना जीवात्मा को परम मुक्ति प्रदान करता है। राम ही आराम और राम ही विश्राम। राम के बिना विश्राम नहीं हो सकता। यही शरीर का सत्य है। इस शरीर या देह के अंतिम समय में राम की ध्वनि से स्फुरित श्वास-वायु जीवन के लिए कारणभूत प्राण-वायु को अपने भीतर समेटकर उसे ओंकार के लक्ष्य तक सहजता से पहुंचा देती है, जो इस जीवन-जगत की अंतिम विश्राम-स्थली है। राम से स्फुरित श्वास-वायु ही इस कारण से सहजयान है, महायान है जो जीव को उस गंतव्य तक पार उतारता है, जहां से सबकुछ आता है, जहां सबकुछ चला जाता है।

संतों की अनुभूति रही है कि वही ओंकार को साकार रूप देने वाले निर्गुण राम दशरथपुत्र श्रीराम के सगुण रूप में मनुष्य शरीर में साक्षात उपस्थित हो गए थे, सब जगत के कारण वह राम संपूर्ण मानवता के लिए मर्यादारूप होकर आदर्श बन गए। जीवन जीना है तो देखो कैसे राम ने जी लिया, तिनके की तरह राज्य और सर्वस्व त्याग दिया किन्तु धर्म के मर्यादापथ का उल्लंघन नहीं किया, लोक के सुख के लिए अपना सुख छोड़ दिया। लोक के सुख-दुख से अपना सुख-दुख समवेत मिलाकर लोक को भयमुक्त और भरपूर कर दिया। भारतीय प्रज्ञा की परंपरा में यह तथ्य सदैव रेखांकित है कि परमात्मा लोक के लिए लोक में ही जीते और रहते हैं, लोक-जीवन परमात्मा का ही मंदिर है, जनता ही जनार्दन है, इस जन के लिए ही राम जीते हैं। राम अन्तर्यामी बनकर लोक की वेदना स्वयं सहते हैं, शरीर और लोक का सब सहन करते हुए उसे सब सहने की शक्ति प्रदान करते हैं। इसीलिए शिवजी उमाजी से कहते हैं-

गुणातीत सचराचर स्वामी, राम उमा सब अंतरजामी।

अर्थात हे पार्वती सुनो, श्रीराम तीनों गुणों यानी सात्विक, राजसिक, तामसिक, से परे हैं, वह चर और अचर यानी मनुष्य-पशु-पक्षी-कीट-पतंगे और वृक्षादि फल-फूल-अन्न एवं वनस्पतियों के कारण हैं, संपूर्ण जगत उन्हीं से है, वह सबके भीतर ही विराजमान हैं।

यही कारण है कि भारत की आध्यात्मिक भावधारा राम नाम के बगैर एक कदम आगे नहीं बढ़ सकती। चाहे उसे निर्गुण रूप में संतों ने देखा, अथवा सगुण रूप में देखा, जिसके अन्तर्गत भागवत कथाधारा पुराणकाल में विकसित हो गई जिसमें राम और कृष्ण समेत लोकमंगल के लिए भगवान के सभी अवतारों की कथा का समावेश हुआ। कालांतर में विदेशी गुलामी के कठिन काल में स्वामी रामानन्द के जीवन से राम-भक्ति का निर्मल कमल पुष्पित हुआ जिसकी भक्ति-सुधा-सुर-धारा में समस्त भारत भावविह्वल हो गया, कबीर ने भी जिन्हें गाया और गोस्वामी तुलसीदास से लेकर संत रविदास तक, समस्त संतशक्ति के भीतर उस पराधीनता के कालखंड में जो आत्मज्योति, प्रकाश और शक्ति स्वरूप बनकर प्रकट हुए।

भक्ति आंदोलन के भी सैकड़ों वर्ष पूर्व आज से 2000 साल पूर्व, जब पश्चिमी देशों में सर्वत्र बर्बरता अट्टहास कर रही थी और जिसके द्वारा प्रेरित विषाणु शक-हूण आदि बर्बर शक्तियों के आक्रमण भारत के लोकजीवन को त्रस्त कर रहे थे, तब उस कष्टकाल, बाह्य आक्रमणकाल में सुदर्शन चक्रधारी भगवान विष्णु के धनुर्धारी स्वरूप को हमारी राजनीति ने अपने सम्मुख प्रकट किया। शार्ङग धनुष को धारण करने वाले भागवत भगवान विष्णु को भारतीय शासन ने अपना आदर्श घोषित किया, फन उठाकर सदा फुफकारने वाले देशशत्रुओं का पलक झपकते ही भक्षण कर शत्रु के समूल विनाश की कूटनीतिक एवं राजनीतिक प्रज्ञा से सम्पन्न पक्षीराज गरूड़ को तब भारत ने अपना राष्ट्रचिन्ह बना लिया, भागवत प्रेरित शासन व्यवस्था निर्मित करने वाला वह महान गुप्तवंशीय शासन आज भी हमारे इतिहास में स्वर्णिम युग माना गया है जिसमें से निकली विक्रमादित्य रूपी शासक परंपरा ने अयोध्या समेत समस्त भारत किंवा विश्वभर में भगवान विष्णु के धनुर्धारी स्वरूप अर्थात श्रीराम की प्रतिमा को जन-मन का वास्तविक शासक मानकर भारतीय राज्य को प्रजा के चरणकमलों की सेवा के लिए ही मानों सदा के लिए प्रस्तुत कर दिया।

स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य का नाम इस दृष्टिकोण से उल्लेखनीय है जिन्होंने उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जनपद के भितरी ग्राम में जो विजय स्तंभ और शिलालेख खुदवाया, वह हूणों के समूल विनाश के विजय उत्सव के फलस्वरूप धनुर्धारी भगवान विष्णु अर्थात प्रभु श्रीराम के मंदिर निर्माण के सन्दर्भ में ही आज से 1600 वर्ष पूर्व उत्कीर्णित किया गया था। त्रेतायुग से प्रवाहित होती आ रही श्रीराम की आदर्श परंपरा को गुप्तकाल में नवीन आधार मिला, उनका विग्रह भारत के गांव-गांव में अपने महान स्थापत्य और सर्वांग सुंदर सभी के भरण-पोषण-सुंदर स्वास्थ्य और लोकमन-रंजन की व्यवस्था के साथ जन-जीवन का आदर्श बना। इसके अन्तर्गत आयुर्वेद, धनुर्वेद, स्थापत्यवेद, गंधर्ववेद आदि वेदों के समस्त उपवेदों की ज्ञान गंगा में सभी वर्ण और सभी जाति-उपजाति, संप्रदाय और यहां तक कि विदेशों से आने वाले ज्ञानपिपासु इच्छुक म्लेच्छ लोग भी सुसंस्कृत और उपकृत हुए, तक्षशिला से नालंदा, काशी से कांची, नवद्वीप से ब्रह्म देश और सुवर्णभूमि, द्वारिका से जगन्नाथपुरी और कश्मीर से गांधार व कन्याकुमारी तक ज्ञान-विज्ञान के महान केंद्र नए सिरे से चमक-दमक उठे। उस समय लौकिक सुख-समृद्धि के आधार स्वरूप शिक्षा-कला-कौशल में भारत का आम आदमी संसार का सबसे अधिक हुनरमंद उत्पादक घटक माना और जाना जाने लगा, तो यह हर आत्मा के भीतर उपस्थित परमात्मा स्वरूप श्रीराम की ओर निरंतर देखने और प्रत्येक कार्य में उनकी छवि को निरखकर कर्मयोग को भगवान की भक्ति का महामंत्र मानने के कारण ही भारत ने संभव कर दिखाया था। कुशलता और संपूर्ण प्रतिभा के साथ अपना सर्वश्रेष्ठ प्रकट करना, अपने कुशल कर्म से, उत्पादन से सर्वत्र हर ओर भगवान की कर्ममय पूजा करना यही प्रत्येक भारतवासी का धर्म बन गया।

आज फिर वही श्रीराम अयोध्या में भारत की राजनीति के आदर्श रामराज्य की संकल्पना को साकार देखने के लिए अपने वैभव के साथ अपनी जन्मभूमि पर नवीन आभा के साथ पुनः विराजमान हो रहे हैं तो संपूर्ण मानवजाति के लिए भारत की ओर से नियति का यह संदेश सुना और सुनाया जाना ही चाहिए कि राम सभी के हैं, सभी जन राम के ही हैं। वह मर्यादा के आदर्श हैं, समन्वय के आधार हैं, जीव की सद्गति हैं, निरंतर सृजित होते और मिटते जीवन की वह चिर ध्वनि और संजीवनी हैं। अपने स्व में सदैव विराजमान राम रूपी अमृत को पाकर ही मानवता सदा के लिए संतुष्ट और सुखी हो सकती है, इसके सिवाय कोई रास्ता नहीं है। सदियों के बाद भारत में हो रहे इस चिरप्रतिक्षित नवविहानकाल को घटित होते देख अयोध्या समेत भारत का वर्तमान आनन्दित हो उठा है, उसका लोक प्रसन्न होने लगा है और सारा काला-कलुष-कल्मष-कलप-कलाप विलाप करते हुए मिट रहा है तो यह भविष्य की आहट है कि गगनाच्छादित घने अंधेरे अब संसार के प्रांगण से विदा होंगे और सत्य का सूर्य सर्वत्र एकसमान प्रकाश देता हुआ प्रकट होकर ही रहेगा। भाग्यवान है यह पीढ़ी और वो लोग जो इस राम-कार्य के साक्षी और कारण बने हैं और उससे भी बड़भागी हैं वो जिन्होंने अपना सर्वस्व इस राम-काज के लिए समर्पित किया है और करते चले जा रहे हैं।

हमें भारत के ग्राम-ग्राम में राम के उसी संकल्प की प्रतिष्ठा करनी होगी जिस राम के बिना प्राचीन भारत में ग्राम का रूप बन ही नहीं सकता था। राम हमारे जीवन के सुख के कारणरूप ग्राम हैं तो समस्त संकटों से जीवन को मुक्ति दिलाने वाले संग्राम भी हैं। ऐसे राम की साधना जबतक भारत करेगा, वह अपने आत्मनिर्भर ध्येयपथ पर अविकल चलता रहेगा, ऐसा हमारे पूर्वजों का पूर्वकाल से हमें दिया गया पाथेय है।

।। रामाय रामचंद्राय रामभद्राय वेधसे। रघुनाथाय नाथाय सीतायः पतये नमः।।

(लेखक भारत अध्ययन केद्र, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में शताब्दी पीठ आचार्य हैं)