विश्व हिन्दू परिषद् के बढते चरण

  • स्थापना , स्थापना की पृष्ठभूमि
  • सम्मेलन पर्व
  • धर्म प्रसार कार्य
  • सामाजिक समरसता के कार्य
  • गोरक्षण-गोसंवर्धन के लिए कार्य
  • श्रीराम जन्मभूमि, गंगा व रामसेतु की रक्षा
  • सन्त शक्ति हिन्दू समाज का मार्गदर्शन करने को तत्पर हुई
  • यात्राएं जिनके कारण अभूतपूर्व जन जागरण हुआ
  • तीर्थ एवं धर्मयात्राओं के कार्य
  • मठ मन्दिर
  • संस्कृत, अर्चक पुरोहित, योग एवं वेद शिक्षा
  • समन्वय मंच
  • सेवा कार्य
  • दैवीय आपदा में सहायता

स्थापना , स्थापना की पृष्ठभूमि
विश्व हिन्दू परिषद भारत तथा विदेश में रह रहे हिंदुओं की एक सामाजिक, सांस्कृतिक संस्था है, सेवा इसका प्रधान गुण है। इसकी स्थापना हिन्दुओं के धर्माचार्यों और संतों के आशीर्वाद तथा विश्व विख्यात दार्शनिकों और विचारकों के परामर्श से हुई है।
स्थापना
एक हजार वर्ष के निरन्तर संघर्ष से प्राप्त स्वातंत्र के पश्चात् यह इच्छा स्वाभाविक थी कि भारत अपनी वैश्विक भूमिका निर्धारित करे। हिन्दू धर्माचार्य यह अनुभव कर रहे थे कि हिन्दू राष्ट्र के रूप में भारत विश्व के समस्त हिन्दुओं के आस्था केन्द्र के रूप में स्थापित हो और विश्व कल्याण के अपने प्रकृति प्रदत्त दायित्व का निर्वाह करे। इस उदात्त लक्ष्य की पूर्ति के लिए पूज्य स्वामी चिन्मयानंद जी (चिन्मय मिशन के संस्थापक) की अध्यक्षता में उन्हीं के मुम्बई स्थित आश्रम ‘‘सांदीपनी साधनालय’’ में आयोजित बैठक में मास्टर तारा सिंह, ज्ञानी भूपेन्द्र सिंह (अध्यक्ष-शिरोमणि अकाली दल),  डॉ0 के. एम. मुंशी, श्रीगुरु जी (तत्कालीन सरसंघचालक-राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ), स्वामी शंकरानंद सरस्वती, राष्ट्र सन्त तुकड़ो जी महाराज, वी. जी. देशपांडे (तत्कालीन महामंत्री-हिन्दू महासभा) बैरिस्टर एच.जी. आडवाणी, पद्मश्री के. का. शास्त्री, श्रीपाद् शास्त्री किंजवड़ेकर, डाॅ0 वी. ए. वणीकर, प्रिंसीपल महाजन, के. जे. सोमय्या, राजपाल पुरी, श्री सूद एवं श्री पोद्दार (नैरोबी), श्रीराम कृपलानी (त्रिनिदाद), धर्मश्री मूलराज खटाऊ, डॉ0 नरसिंहाचारी आदि 40 से भी अधिक सन्तों एवं विचारकों ने चिन्तन किया। इस अवसर पर मास्टर तारा सिंह ने स्पष्ट कहा कि हिन्दू और सिख दो अलग जातियां नहीं हैं। सिखों का उत्थान तभी संभव है, जब तक हिन्दू धर्म जीवित है।
संस्था के नाम ‘‘विश्व हिन्दू परिषद’’ की घोषणा भी इन्हीं श्रेष्ठजनों ने विक्रमी संवत 2021, 29 अगस्त, 1964 ई0 श्रीकृष्ण जन्माष्टमी (भगवान श्रीकृष्ण का जन्मदिन) को की।
डॉ0 के. एम. मुंशी ने परिषद के उद्देश्यों को निम्नलिखित प्रकार से रखा –
1. हिंदू समाज को सुसंगठित एवं सुदृढ़ बनाने की ओर अग्रसर रहना। 2. आधुनिक युग के अनुकूल समस्त विश्व में हिंदू धर्म के नैतिक एवं आध्यात्मिक सिद्धांतों तथा आचार-विचार का प्रचार करना। 3. विदेश स्थित समस्त हिंदुओं से सुदृढ़ संपर्क स्थापित करना तथा उनकी सहायता करना।
संस्था का पंजीकरण  एक्ट 1860’ के अंतर्गत दिल्ली में 08 जुलाई, 1966 को हुआ (पंजीकरण संख्या एस 3106) और पंजीकृत संविधान में उद्देश्य लिखे गए-
1.  भारत तथा विदेशस्थ हिंदुओं में भाषा, क्षेत्र, मत, सम्प्रदाय और वर्ग सम्बन्धी भेदभाव मिटाकर एकात्मता का अनुभव कराना।
2.  हिन्दुओं को सुदृढ़ और अखंड समाज के रूप में खड़ा कर उनमें धर्म और संस्कृति के प्रति भक्ति, गौरव और निष्ठा की भावना उत्पन्न करना।
3.  हिंदुओं के नैतिक एवं आध्यात्मिक जीवन मूल्यों को सुरक्षा प्रदान कर उनका विकास और विस्तार करना।
4.  छुआछूत की भावना समाप्त कर हिन्दू समाज में समरसता पैदा करना।
5.  हिंदू समाज के बहिष्कृत और धर्मान्तरित, पर हिंदू जीवन पद्धति के प्रति लगाव रखने वाले भाई-बहिनों को हिंदू धर्म में वापस लाकर उनका पुनर्वास करना।
6. विश्व के भिन्न-भिन्न देशों में बसे हिंदुओं को धार्मिक एवं सांस्कृतिक आधार पर परस्पर स्नेह के सूत्र में बांधकर उनकी सहायता करना और उन्हें मार्गदर्शन देना।
7.  संपूर्ण विश्व में मानवता के कल्याण हेतु हिन्दू धर्म के सिद्धांतों और व्यवहार की व्याख्या करना।
स्थापना की पृष्ठभूमि
हिन्दू समाज हजार वर्ष के परतंत्रता काल में अपना स्वत्व, स्वाभिमान, गौरव और महत्व भूल गया। उसने उन सब महान विशेषताओं को अन्धकार में विलीन कर दिया, जिनके बल पर वह विश्वगुरु था।
इसी बीच ईसाई पादरियों द्वारा विदेशी डाॅलर के बल पर म0प्र0 में अशिक्षित, निर्धन और सामाजिक दृष्टि से कमजोर वर्गों के धर्मान्तरण के समाचार मिल रहे थे। इस समस्या की वास्तविकता जानने के लिए नियुक्त नियोगी कमीशन की रिपोर्ट 1957 में प्रकाशित होते ही देश में हडकंप मच गया।
विदेशों में बसे हिन्दुओं की संस्कृति और संस्कारों के संरक्षण की चिंता भी अनेक श्रेष्ठजनों को सता रही थी। त्रिनिदाद से भारत आये एक सांसद डा0 कपिलदेव ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन सरसंघचालक श्री गोलवलकर (श्रीगुरु जी) से भेंट करके उन्हें कैराबियाई द्वीप समूह में रह रहे हिन्दुओं पर मंडराते खतरे की बात कही और विदेशस्थ हिन्दुओं से संपर्क स्थापित करने की आवश्यकता पर बल दिया।
इन्हीं परिस्थितियों में यह अनुभव किया जाने लगा था कि हिंदू समाज के बीच काम करने वाला एक संगठन खड़ा किया जाए। स्वामी चिन्मयानंद जी के मन में भी हिंदुओं के एक विश्वव्यापी संगठन बनाने की इच्छा पनप रही थी। इसी मंथन का परिणाम है विश्व हिन्दू परिषद।
हिन्दू की परिभाषा
परिषद के संविधान में ‘हिन्दू’ की परिभाषा लिखी गई कि:-
‘‘जो व्यक्ति भारत में विकसित हुए जीवन मूल्यों में आस्था रखता है, वह हिंदू है। इससे भी आगे बढ़कर कहा गया कि जो व्यक्ति अपने आप को हिंदू कहता है, वह हिंदू है।‘’
इस परिभाषा के अंतर्गत वे सब सम्मिलित हो जाते हैं, जो अन्य देशों के नागरिक हैं; पर स्वयं को हिंदू कहते हैं।
घोष वाक्य
हिंदू समाज को गतिशील, सक्रिय और सुधरे रूप में प्रतिष्ठापित करने हेतु घोष वाक्य दिये गये।
‘‘हिन्दवः सोदराः सर्वे, ना हिंदु पतितो भवेत
मम दीक्षा हिंदू रक्षा, मम मंत्रः समानता।’’

विश्व हिन्दू परिषद् के बढते चरण

प्रारम्भ में राष्ट्रीय, प्रांतीय और स्थानीय स्तर पर हिन्दू सम्मेलन आयोजित किए गए। समर्पित और प्रशिक्षित कार्यकर्ताओं द्वारा जगह-जगह पर इकाइयाँ बनाई गईं। संगठन विस्तार के लिए जन-जागरणात्मक, आंदोलनात्मक और रचनात्मक तीन प्रकार के कार्य किए गए।
सम्मेलन पर्व
प्रथम विश्व हिन्दू सम्मेलन: 22, 23 और 24 जनवरी, 1966 – प्रयागराज (उत्तर प्रदेश) गंगा, यमुना एवं सरस्वती के संगम पर। इसमें चारों पूज्य शंकराचार्यों सहित हिंदुओं के सभी संप्रदायों और पंथों के प्रमुख धर्माचार्यों ने भाग लिया। सम्मेलन में उन हिन्दुओं के लिए, जो अपना धर्म एवं समाज किन्हीं परिस्थितियों में त्याग चुके थे, एक महत्वपूर्ण प्रस्ताव कि ‘‘आज यह बहुत ही आवश्यक हो गया है कि ऐसे जो भी व्यक्ति बिना किसी दबाव के स्वेच्छा से अपने पूर्वजों के धर्म में वापस आना चाहते हैं उन्हें आत्मसात् कर लिया जाए।’’ स्वीकार किया गया। इस प्रकार स्वधर्म में वापसी को पूज्य सन्तों द्वारा मान्यता मिली, इस सम्मेलन की यह महत्वपूर्ण उपलब्धि है।
विदेशस्थ हिन्दुओं के सम्बन्ध में पारित प्रस्ताव में कहा गया कि विदेश में रहने वाले हिन्दू धीरे-धीरे अपनी मातृभूमि और धर्म से कटते जा रहे हैं, वे अपने परम्परागत धार्मिक, सामाजिक संस्कारों से भी दूर होते जा रहे हैं अतः उनसे सम्पर्क बनाकर रखना और उनमें अपनी संस्कृति को सुदृढ़ करना आवश्यक है। सम्मेलन में कुल 11 प्रस्ताव पारित हुए, जिनमें मंदिरों का वैभव, गोरक्षा, संस्कृत का शिक्षण भी थे।
उडुप्पी सम्मेलन – कर्नाटक राज्य का प्रथम ऐतिहासिक हिंदू सम्मेलन 13-14 दिसंबर, 1969 को उडुप्पी में हुआ। इसमें सभी जगद्गुरुओं और धर्माचार्यों ने ‘हिन्दवः सोदरा सर्वे’ का उद्घोष कर संपूर्ण हिंदू जगत से छुआछूत को मिटाने का आह्वान किया। उन्होंने कहा कि हमारा उद्देश्य हिन्दू समाज को अखंड एकात्मता की भावना से संगठित रखना है, जिससे अस्पृश्यता जैसी प्रवृतियों और भावनाओं के कारण उसमें कोई विघटन न हो।
उल्लेखनीय है कि जहाँ हिंदुत्व का रथ सवर्ण-दलित के दलदल में धंस रहा था, वहाँ श्रीगुरु जी के प्रयत्नों से ‘न हिन्दू पतितो भवेत’  का जयकार पूज्य सन्तों ने किया।
जोरहाट सम्मेलन – असम के जोरहाट में 27, 28, 29 मार्च, 1970 को हुए सम्मेलन में पधारे वनवासी, गिरिवासी और नगरवासियों में हिंदुत्व के प्रति प्रेम और आस्था जाग्रत हुई। इसमें भारत के सभी प्रमुख तीर्थों और 45 नदियों का पवित्र जल जलकुंड में डाला गया। इससे यहां के लोगों में भारत की एकता का सन्देश प्रसारित करने में परिषद को बड़ी सफलता मिली। लोग इस कुंड का पवित्र जल अपने घर ले गये। सम्मलेन में अनेकों पूज्य सत्राधिकारी सन्तों एवं नगा रानी गाइडिन्ल्यू ने भाग लिया। सम्मेलन में सर्वसम्मति से घोषणा की गई कि ‘‘हिन्दू हिन्दू एक हों’’। श्रीगुरु जी ने कहा कि हम सब एक हैं। अतः अपने को हिन्दू कहलाने में गौरव का अनुभव करें और आगामी जनगणना में ट्राइबल जैसे तुक्ष शब्दों को त्यागकर स्वयं को हिन्दू लिखवाएं। इसी सम्मेलन के परिणामस्वरूप अरुणाचल, मणिपुर, त्रिपुरा, मेघालय में भी परिषद की इकाई गठित हुई।
सम्मेलनों की श्रृंखला
हिन्दू समाज में व्यापक जन जागरण, राष्ट्रीय एवं क्षेत्रीय समस्याओं के प्रति तथा सामाजिक कुरीतियों के विरुद्ध जागरूकता निर्माण करने के लिए राष्ट्र, प्रान्त एवं जिला स्तर पर हिन्दू सम्मेलन हुए। सम्मेलन विवरण-
पूर्वोत्तर भारत सम्मेलन: अक्टूबर, 1966 – गुवाहाटी। ईसाइयों की बढ़ती गतिविधियों पर चिंता प्रकट की गई, घोषणा हुई कि सभी हिंदू प्रकृति पूजक हैं, स्वार्थी तत्व हमारे समाज की एकता, देश की अखंडता और धर्म की व्यापकता को सहन नहीं कर पा रहे हैं, हमें ध्यान रखना होगा कि हम सब हिन्दू हैं और यह देश हिन्दू राष्ट्र है। 1980 का नौगाँव (असम)। 1980 से 1982 के बीच असम के अनेक जिलों, तहसीलों में कुल 27 सम्मेलन हुए। मणिपुर प्रान्त सम्मेलन- 1983 में इम्फाल, 1984 में थीबल व मोइरांग में सम्मेलन हुए। 2001 में त्रिपुरा।
बिहार – 1982 किशनगंज (बिहार) के सम्मेलन में घुसपैठियों के विरुद्ध समाज व सरकार का ध्यान आकृष्ट किया गया। बनमनखी (पूर्णिया)।
पश्चिम बंगाल – 1983 का मालदा।
अंडमान द्वीप समूह सम्मेलन – अप्रैल, 1983, पोर्ट ब्लेयर। 6,000 लोगों की सहभागिता, बड़ी संख्या में वनवासी उपस्थित।
जम्मू सम्मेलन – 1981। पश्चिमोत्तर राज्यों के 7,500 लोग उपस्थित रहे।
पंजाब – मार्च, 1983-अमृतसर। स्थानीय गुरुद्वारों ने अपने लंगर खोल दियेे, सिख और गैर-सिख में एकात्मता के दर्शन हुए।
राजस्थान – 1970 का हाड़ौती (राजस्थान), 2005 में ब्यावर (राजस्थान) सम्मेलन में पूर्व में मुस्लिम बने 1,900 लोग पुनः अपने पूर्वजों की परम्परा में वापस हुए।
महाराष्ट्र के सम्मेलन – पंढरपुर, दिसंबर, 1970, 1978 में मंगेश (गोवा), 1981 नरसोवाबाड़ी, 1987 आलन्दी, अक्टूबर, 1995-नागपुर, केन्द्र सरकार की मुस्लिम व ईसाई तुष्टीकरण की नीति पर प्रहार किये गए। 2003 में शम्भाजी नगर (औरंगाबाद), 2005 में पंढरपुर, 2006 में देवगिरि सम्मेलन।
गुजरात – अक्टूबर, 1972 सिद्धपुर। सम्मेलन में 15,000 प्रतिनिधि, विदेशस्थ हिंदुओं से हो रहे दुव्र्यवहार पर दुःख प्रकट किया गया।
आन्ध्र – तिरुपति सम्मेलन – 1974। पूज्य स्वामी चिन्मयानंद जी महाराज ने हिंदू वोट बैंक बनाने का आह्वान किया और कहा कि वे वोट की शक्ति को समझें। हैदराबाद में दिसंबर, 1988।
कर्नाटक – 2003 में बंगलौर एवं उडुपी में सम्मलेन हुए।
तमिलनाडु – 1982 का नागरकोइल। 2006 में इरोड सम्मेलन। इरोड सम्मलेन में कहा गया कि हिन्दू समाज तभी दुनिया में सम्मानपूर्वक जी सकेगा, जब प्रत्येक हिन्दू स्वयं को सिर्फ हिन्दू के नाते पहचानेगा। हमें जातिगत भेदभाव को दूर कर हिन्दुओं के नाते संगठित होना होगा।
केरल – 1982 एर्नाकुलम्, सम्मेलन में 95 धार्मिक एवं सामाजिक संगठनों की भागीदारी।
द्वितीय विश्व स्तरीय सम्मेलन 1979-प्रयाग:- 24 जनवरी, 1979 विश्व संस्कृत सम्मेलन, 25 जनवरी, 1979 सन्त सम्मेलन, 26 जनवरी, 1979 मातृ सम्मेलन, 27 जनवरी, 1979 विश्व हिन्दू सम्मेलन। विश्व संस्कृत सम्मेलन की अध्यक्ष्ता डा0 कर्ण सिंह जी ने की थी। मातृ सम्मेलन की अध्यक्षता श्रीमती महादेवी वर्मा ने की थी, नगारानी माँ गाइडिल्यू सम्मेलन में पधारी थीं। मातृ सम्मेलन ने घोषणा की थी कि ‘स्त्री ही संस्कारित समाज का निर्माण कर सकती है, सेवावृत्ति स्त्री का सहज स्वभाव है और पावित्र्य की रक्षा। अध्यक्षा श्रीमती महादेवी वर्मा ने कहा था कि महिलाएं अन्याय के विरुद्ध संघर्ष करें और समाज के उपेक्षित महिलाओं के विकास के लिए समुचित प्रयास करे। सन्त सम्मेलन की अध्यक्षता महामण्डलेश्वर पूज्य प्रकाशानन्द जी महाराज ने की थी। सम्मेलन में सन्तों ने समाज में फैल रही भ्रान्तियों का उत्तर दिया था और हिन्दू, हिन्दी, संस्कृति और गोमाता की रक्षा का दायित्व स्वीकार करते हुए घोषणा की थी कि जिस धर्म की रक्षा हम अपने मठों में बैठकर कर रहे हैं, उसी की रक्षा के लिए गाँव-गाँव भ्रमण करें और जागरण का मंत्र फूँके। हमें व्यक्तियों को सुसंस्कार देने हैं। वनवासियों के कल्याण के लिए तीव्र गति से कार्य करना आवश्यक है। आपसी भेदभाव मिटाकर यह बोध जगाना है कि हम हिन्दू हैं। विदेशस्थ हिन्दू सम्मेलन की अध्यक्षता लाला हंसराज जी ने की थी। सम्मेलन में 23 देशों के प्रतिनिधि उपस्थित थे, विदेशस्थ हिन्दुओं की गौरव रक्षा, सुरक्षा, सहयोग एवं बंगलादेश के हिन्दुओं पर प्रस्ताव स्वीकार किए गए थे। देश-विदेश के एक लाख से अधिक प्रतिनिधियों ने भाग लिया। सभी सत्रों को मिलाकर तीन लाख से अधिक लोगों ने इन कार्यक्रमों को देखा और सुना।
इन सम्मेलनों ने समाज में स्वाभिमान पैदा किया, यह भाव पनपा कि ‘‘हम सब हिन्दू हैं।’’ जहाँ-जहाँ सम्मेलन हुए वहाँ संगठन की इकाइयाँ गठित होने लगीं।
तृतीय विश्व हिन्दू सम्मेलन फरवरी, 2007-प्रयागराज अर्द्ध कुम्भ मेला, उपस्थिति-दो लाख। भारत हिन्दूराष्ट्र है, इसी एक सूत्र को आधार बनाकर सन्तों ने समाज का मार्गदर्शन किया।

धर्मप्रसार-कार्य

पृष्ठभूमि – विश्व हिन्दू परिषद के निर्माण की वेला में जो महानुभाव स्वामी चिन्मयानन्द जी के सान्दीपनी साधनालय में एकत्रित आये थे उन सभी के लिए हिन्दुओं में हो रहा धर्मान्तरण एक महत्वपूर्ण विषय था। इसी कारण से जनवरी, 1966 में प्रयाग में आयोजित प्रथम विश्व हिन्दू सम्मेलन में परावर्तन को पूज्य सन्तों की ओर से स्वीकृति प्राप्त हुई थी। परिषद में धर्मप्रसार कार्य का सृजन हुआ। प्रथम प्रयोग राजस्थान में हुआ था। इस्लाम का उदय अरब में हुआ था। इस्लाम के आक्रमणकारी बर्बर थे। इस्लाम ने विश्व में तलवार के बलपर मानवता का विनाश किया। यही जेहादी आक्रमणकारी भारत में भी आये, इन्होंने मारकाट द्वारा भय का वायुमण्डल निर्माण किया था। इसी भय के कारण जो हिन्दू जीवित रहना चाहते थे उन्होंने मुस्लिम रीतियों का पालन करना आरभ्भ किया। ऐसी जातियां बची रही जो मुस्लिम रीतियों के साथ-साथ हिन्दू संस्कारों का भी पालन करती रही।
ब्यावर –
ऐसी ही एक जाति मेहरात है, ये चैहानवंशीय क्षत्रिय हैं, इन्होंने विवाह में कलमा पढ़ने के साथ पण्डितों के द्वारा सप्तपदी का चलन भी अपना रखा था, इनकी वेशभूषा और त्यौहार हिन्दुओं जैसे ही रहे। अजमेर, पाली और भीलवाड़ा जनपद में इनकी जनसंख्या लगभग तीन लाख है। इनके पूर्वज सम्राट पृथ्वीराज चैहान थे और इनकी इष्टदेवी आशापूर्णा माँ है। इन्हें अपने वंश का स्मरण सदैव बना रहा, इनके श्रेष्ठ पुरूषों ने कभी जोधपुर महाराजा से आग्रह किया था कि एक बार आप हमारी पंगत में बैठकर भोजन करें और हमें चैहान वंशीय क्षत्रीय घोषित कर दें तो हम सभी पूर्णरूप से हिन्दूधारा में आ जायेंगे। जोधपुर महाराजा की अनायास मृत्यु के कारण यह कार्य सम्पन्न नहीं हो सका।
परिषद के राजस्थान प्रान्त के कार्यकर्ताओं ने इस जाति के ग्रामों में जाकर अध्ययन किया व जाति के श्रेष्ठजनों से सम्पर्क प्रारम्भ किया। सम्राट पृथ्वीराज चैहान की जयन्ती मनाना शुरू किया, आशापुरा माता रथ यात्रा का आरम्भ हुआ। क्रमशः कार्यक्रमों का क्रम बढ़ा, जनमन में अपने पूर्वजों के घर में आने की चाह खड़ी हुई। यज्ञ-हवन ने इस चाह को परावर्तन (घरवापसी) में परिणित कर दिया। अब तक लगभग 80 हजार मेहरातों की घर वापसी हुई है। इनके ग्रामों में लगभग 60 मंदिरों का निर्माण किया गया है, ग्रामों में भजन मण्डलियां चलती हैं, विद्यालय संचालित हैं, छात्रावास चलता है। इस क्षेत्र का केन्द्र ब्यावर है। वहीं एक आशापुरा माता का मंदिर बनाया गया है, जहाँ नवरात्र महोत्सव के समय चैहानभक्त बड़े-बडे झण्डे लेकर, पदयात्रा करते हुए आते हैं।
बांसवाड़ा –
राजस्थान के बांसवाड़ा जिला में 70 प्रतिशत अनुसूचित जनजाति का निवास है।  अंग्रेजों के शासनकाल से इस जिले पर चर्च की दृष्टि पड़ी थी। चर्च ने भील वनवासियों को भारी संख्या में ईसाई बनाया। एक समय यह स्थिति बन गई थी कि यहाँ राम-राम के बजाय जय ईशु गूंजता था।
जनजाति से सम्पर्क साधा गया है, उनमें अपने पूर्वजों, देवी-देवताओं का भाव जागृत हुआ है, घर के द्वार पर गणेश लगवाये गये, गणेश महोत्सव किये गये, गांवों में हनुमान मंदिर निर्माण किये, भजन मंडलियों का निर्माण व पहले से चली आ रही भजन मंडलियों को प्रोत्साहन दिया गया। बांसवाड़ा नगर में प्रतिवर्ष 6 दिसम्बर को लगभग 15 से 20 हजार जनजाति बन्धु अपनी भजन मंडलियों सहित आते हैं, सन्तों के प्रवचन होते हैं, रातभर भजन गाये जाते हैं।
बांसवाड़ा, डूंगरपुर व प्रतापगढ़ के जनजातीय क्षेत्रों में लगभग 400 विद्यालय चल रहे हैं, जिनमें लगभग 42 हजार विद्यार्थी पढ़ते हैं। ये सभी इसी क्षेत्र की जनजाति के लाल हैं, शिक्षक 99 प्रतिशत जनजातीय बन्धु है। परिणामस्वरूप आज ईसाईयत सिकुड़ गई है और जनजाति समाज गर्वीला हिन्दू बना है। आसपास के जिलों में 30 छात्रावास भी चलते हैं। 636 भजन मंडलियों के माध्यम से जनजातीय बन्धुओं से सम्पर्क बना है।
जहाँ-जहाँ सन्तों का सम्पर्क बढ़ा वहाँ-वहाँ परावर्तन (घरवापसी) के कार्यक्रम हो रहे हैं। पूर्वी आन्ध्र में प्रतिमास परावर्तन के कार्यक्रम हो रहे है।
तमिलनाडु –
रामनाथपुरम (तमिलनाडु) जिले के जिन गाँवों में सामूहिक धर्मान्तरण हुआ था वहाँ व्यापक जन सम्पर्क व अध्ययन, सन्तों की पदयात्राएं कराई गईं। सन्तों ने हरिजनों के साथ बैठकर भोजन किया। हरिजन परिवार में जन्मे एवं मलयेशिया के एक मठ के स्वामी श्रीरामदास जी महाराज के साथ उन गाँवों में हरिजनों की गोष्ठियाँ हुई, उन्होंने धर्मान्तरण का विचार छोड़ा और दो महीने तक उन्हीं क्षेत्रों में स्वामी रामदास जी महाराज ने गाँव-गाँव भ्रमण किया।
1981 में तमिलनाडु के एक कस्बे मीनाक्षीपुरम में बड़ी संख्या में हरिजन परिवारों को मुस्लिम बना लिए जाने से हिन्दू समाज चकित रह गया। परिषद ने इनको वापस लाने का संकल्प लिया। हिन्दू समाज में नई चेतना जगी। संस्कृति रक्षा योजना बनी। जुलाई, 1982 में हरिद्वार में अखिल भारतीय प्रशिक्षण वर्ग लगा, 114 कार्यकर्ता आए। धर्मान्तरण के विरुद्ध व्यापक जन जागरण का संकल्प लिया गया। गाँव-गाँव सम्पर्क, जनसभाएं, समूह बैठकें, प्रभात फेरियाँ, सन्तों के प्रवचन प्रारम्भ हुए।
तमिलनाडु के इदंतकुराई ग्राम में मछुआरे रहते थे। इनके पूर्वजों को 400 वर्ष पूर्व ईसाई बना लिया गया था परन्तु चर्च इन पर अत्याचार करता था। घर लूटना, घरों को आग लगाना, झूठे मुकदमें चलाना, माँ-बहनों पर अत्याचार होते थे। परिषद कार्यकर्ताओं ने सम्पर्क किया और 176 परिवारों के 1200 सदस्यों ने विधिवत परावर्तन किया।
धर्मप्रसार का उद्देश्य-
समाज के आबालवृद्ध में हिन्दूधर्म के प्रति निष्ठा-भक्ति निर्माण कर इसे सुदृढ़ स्वाभिमानी हिन्दू के रूप में खड़ा करेंगे।
धर्मान्तरण को रोकना-
इस्लाम के काल से तलवार के आधार पर धर्मान्तरण हुआ। अंग्रेजी काल में बड़ी मात्रा में धर्मान्तरण हुआ। धर्मान्तरण के कारण ही पाकिस्तान बना। धर्मान्तरित होने वाला अपनी पूर्वपम्परा, पूर्वज, ग्रंथ, देवी-देवता को त्यागकर विदेशी धर्मनिष्ठा को स्वीकार कर लेता है, भारत को माँ कहने और वन्देमातरम् घोष का विरोध करने लगता है। अतः धर्मान्तरण राष्ट्रान्तरण है। इस धर्मान्तरण को रोकना आवश्यक है।
परावर्तन को सन्तों ने स्वीकारा-
हिन्दू समाज से छीन लिए गए थे अतः अब वापस हिन्दू समाज में ही आ रहे हैं, इसी कारण यह धर्म परिवर्तन नहीं अपितु परावर्तन है। जनवरी, 1966 में प्रयाग में सम्पन्न हुए प्रथम विश्व हिन्दू सम्मेलन में इसी परावर्तन को सन्तों की स्वीकृति प्राप्त हुई।
समझाकर, पूर्वजों की याद दिला कर वापिस लाना परावर्तन है। इसे ही घर वापसी कहा जाता है।
समरसता का प्रयास-
जो घर में आ गये उनको शिक्षित व संस्कारित करना, उन्हें ठीक प्रकार बसाना, सुरक्षा करना, रोजी-रोटी का प्रबन्ध करना, सन्तति को शिक्षित कर कार्य प्रवण बनाना आवश्यक है। इस दृष्टि से संस्कार केन्द्रों का संचालन, मंदिरों का निर्माण, भजनमंडलियों का गठन, विद्यालय, छात्रावास निर्माण, कथा-प्रवचन कार्यक्रम किए जाते हैं। समाज में वे सम्मानित जीवन जियें, ऐसा मन हिन्दू समाज तैयार किया जाता है।
समरसता हेतु सामूहिक कार्यक्रमों का आयोजन, त्योहारों पर, तीर्थयात्राओं के अवसर पर, सभी को सम्मानित करने का कार्य, वाल्मीकि जयन्ती, रविदास जयन्ती मनाना, ‘न हिन्दू पतितो भवेत’, ‘हिन्दव सोदरा सर्वे’ के भाव को प्रबल बनाते हैं। इस सम्पूर्ण कार्य के लिए 300 कार्यकर्ता रात-दिन भ्रमण व परिश्रम करते हैं। जातियों का चयन कर उनके लिए विशेष प्रकल्प तैयार करके, भिन्न-भिन्न प्रकार के सेवा कार्य ऐसे क्षेत्रों में चलाए जा रहे हैं।
सामाजिक समरसता के कार्य
1969 उडुप्पी में सम्पन्न सम्मेलन में अस्पृश्यता के विरुद्ध सन्तों का उद्घोष।
1970 में महाराष्ट्र के पंढरपुर अधिवेशन में द्वारका तथा शृंगेरी के जगद्गुरु शंकराचार्य और मध्व तथा वल्लभ संप्रदायों के पूज्य आचार्यों ने छुआछूत का विरोध किया।
देशभर में शिक्षा, आरोग्य, स्वावलम्बन के लिए सेवा कार्य प्रारम्भ।
1982 की तमिलनाडु ज्ञान रथं यात्रा – रथ पर लकड़ी का मन्दिर बनाकर,  भगवान मुरुगन की मूर्ति प्रतिष्ठापित कर इसे उन पिछड़े क्षेत्रों में ले जाया गया, जहां हिंदू धर्म विरोधी प्रचार चलाया जा रहा था। लगभग 21,000 कि.मी. लंबी इस यात्रा में छह लाख लोगों से संपर्क हुआ।
1983 में कर्नाटक के उजीरे धर्मस्थल पर हुए सम्मेलन में 60,000 प्रतिनिधियों ने भाग लिया। इसमें हिंदू धर्म के मठों के लगभग 174 अधिपतियों ने सर्वसम्मति से अस्पृश्यता के उन्मूलन और हिंदू एकता के लिए संघर्ष का आह्वान किया।
केरल में 1983 में सन्तों के नेतृत्व में दो धर्मरथों में धर्मयात्रा प्रारम्भ। सन्तों ने मुख्य रूप से हरिजन बस्तियों का भ्रमण किया और उन्हीं की झोपडि़यों में जाकर उन्हीं के द्वारा बनाया गया तथा उन्हीं के द्वारा वितरित किया गया भोजन ग्रहण किया।
सेलम (तमिलनाडु) संत सम्मेलन – जनवरी, 1988। सम्मेलन में वैदिक, बौद्ध, नामधारी सिख आदि प्रमुख संप्रदायों के 23 मठाधिपतियों ने भाग लिया। सम्मेलन में सर्वसम्मत निर्णय हुआ कि छूआछूत का हिंदू धर्म में कोई स्थान नहीं है। इसे पूर्णतया समाप्त किया जाना चाहिए।
अयोध्या में श्रीराम जन्मभूमि मन्दिर का शिलान्यास नवम्बर, 1989 में बिहार के एक हरिजन कार्यकर्ता श्री कामेश्वर चैपाल जी से कराया गया।
ग्राम पुजारी प्रशिक्षण – तिरुम लैकोदी (तमिलनाडु) में सन 1990 से ग्रामीण मंदिर के पुजारियों को प्रशिक्षण देने के लिए 15-15 दिन के शिविर लगाये गये। इनमें वनवासी, जनजाति, अति पिछड़ी, पिछड़ी, और अगड़ी जातियों के इन वर्षों में ऐसे शिविरों के द्वारा कई हजार पुजारी मंदिर में पूजा-अर्चन के लिये प्रशिक्षित हुये। कोविल पैरावेरू, त्रिचनापल्ली में 5,300 ग्राम पुजारियों का एक प्रांतीय सम्मलेन 1995 में हुआ। इसका उद्देश्य पुजारियों को संगठित कर उन्हें अपने अधिकार और कर्तव्य के प्रति सजग करना था। परिणाम स्वरुप पुजारियों को सरकार से पेंशन मिलने लगी।
1994 में काशी में धर्मसंसद का आयोजन हुआ। सन्त-महात्मा डोमराजा के घर निमन्त्रण देने के लिए स्वयं चलकर गए, प्रसाद ग्रहण किया, अगले दिन डोमराजा धर्मसंसद अधिवेशन में मंच पर सन्तों के मध्य बैठे, सन्तों ने पुष्प-हार पहनाकर स्वागत किया। इस धर्मसंसद में 3500 सन्त उपस्थित थे।
महर्षि वाल्मीकि व सिद्धू-कान्हू रथ यात्राएं – आजादी के बाद से ही समाज को जाति व धर्म के आधार पर बांटने के प्रयास हो रहे थे। इसके विरुद्ध जनजागरण हेतु मार्च, 1994 में बिहार में दो रथ यात्राएं आयोजित कीं। 1. महर्षि वाल्मीकि रथ यात्रा, जो उत्तर बिहार के क्षेत्रों में गयी। 2. सिद्धू कान्हू रथ यात्रा जो सिंहभूम जिले से बिहार के अत्यंत पिछड़ेे क्षेत्रों में गयी। दोनों यात्राओं ने लगभग तीन हजार कि.मी. की दूरी तय की और लाखों लोगों की इसमें सहभागिता हुई। इस यात्रा ने अति पिछड़े जनजातीय व वनवासी लोगों के हृदय को छुआ। इससे सामाजिक समरसता का वातावरण बिहार में निर्मित हुआ।
अक्टूबर, 1995 में द्वितीय एकात्मता यात्रा के नागपुर में समापन के अवसर पर हिन्दू सम्मेलन। सन्त-महात्मा दीक्षा भूमि पर दर्शन करने गए।
अप्रैल, 2005 में छत्तीसगढ़ के अम्बिकापुर से बिलासपुर तक 782 कि.मी. की पदयात्रा सामाजिक समरसता कार्यक्रम के अन्तर्गत सम्पन्न।
सन्त रविदास चेतना यात्रा – नवम्बर-दिसम्बर, 2005 में चित्तौड़ से काशी तक सन्त रविदास जी की प्रतिमा के साथ 12 दिवसीय गुरु रविदास चेतना यात्रा का आयोजन, 1600 कि.मी. की दूरी में 25 जनसभाएं, 245 स्थानों पर स्वागत, 10 स्थानों पर शोभायात्राएं। कार्यक्रम का आयोजन सन्तों के नेतृत्व में हुआ।
2006 में उड़ीसा में अष्टमातृका रथयात्रा – 8 देवी पीठों से रथयात्रा उड़ीसा में 7 दिन तक भ्रमण, सभी गाँव से मिट्टी और जल चकापाद लाया गया। गोवर्धन पीठाधीश्वर पूज्य जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी निश्चलानंद जी महाराज एवं स्वामी लक्ष्मणानंद जी महाराज के द्वारा स्फटिक शिवलिंग का अभिषेक एवं संग्रहीत मिट्टी से तुलसीचैरा बनाया गया। 265 गाँवों से यात्रा गुजरी, 115 धर्मसभाएं, 1684 स्थानों पर स्वागत हुआ। यात्रा के दौरान हनुमान चालीसा, सुन्दरकाण्ड, रामचरितमानस, श्रीमद्भगवद्गीता, श्रीराम के चित्र व लाॅकेट वनवासी समाज को सन्तों द्वारा भेंट किए गए।
1986 में सुन्दरगढ़ (उड़ीसा) में वनवासी तथा औरंगाबाद (बिहार) में जातीय एकता सम्मेलन किये गये।